यथा पिंडे, तथा ब्रह्माण्डे
यह संसार कैसे अस्तित्व में आया? इस प्रश्न पर सदीयों से विचार और प्रयोग किए गए हैं। अनेक वैज्ञानिक अनुसंधानों ने यह सिद्ध किया है कि इस समस्त ब्रह्माण्ड का अस्तित्व एक परमशक्ति के कारण है, जो सर्वव्यापक है। ईश उपनिषद के पहले मंत्र में कहा गया है -
"ईशावास्यमिदं सर्वं यत्किं च जगत्यां जगत्"
अर्थात् समस्त ब्रह्माण्ड का प्रत्येक कण उस परमशक्ति का घर है। इस परमशक्ति के कारण ही समस्त जड़, चेतन और अचेतन का उत्पत्ति, पालन और विसर्जन होता है। यह परमशक्ति अनेक रूपों में दिखाई देती है।
प्राचीन वैज्ञानिकों और ब्रह्मज्ञानी संतों ने ब्रह्माण्ड का गहन अध्ययन करके इस परमशक्ति की सात गतियों का वर्णन किया है। वे गतियाँ इस प्रकार हैं:
1. गुरुत्वाकर्षण शक्ति - यह पृथ्वी में उपस्थित है और समस्त पदार्थों को पृथ्वी पर स्थिर रखता है।
2. वायुमण्डल की सुरक्षा - यह शक्ति पृथ्वी के वायुमण्डल को स्थिर और सुरक्षित रखती है।
3. पृथ्वी की धुरी पर झुकाव और घूमना- यह शक्ति पृथ्वी को 23.5° पर झुका कर दिन-रात के चक्र को संचालित करती है।
4. चन्द्रमा की गति - चन्द्रमा पृथ्वी के चारों ओर घूमते हुए दिन, महीने और अन्य कालक्रम को नियमित करता है।
5. सूर्य के चारों ओर पृथ्वी की गति- यह शक्ति पृथ्वी को सूर्य के चारों ओर घुमा कर ऋतु और वर्ष के चक्र को संचालित करती है।
6. सौरमण्डल का गति- यह शक्ति सौरमण्डल को सूर्य के चारों ओर घुमा कर ब्रह्माण्ड की गतियों को नियमित करती है।
7. सूर्य के ऊपर की गतियाँ - यह अंतिम शक्ति सूर्य की उर्जा और अन्य ब्रह्माण्डीय घटनाओं को संचालित करती है।
प्राचीन ऋषि-मुनियों ने यह अनुभव किया कि जैसे ब्रह्माण्ड सात शक्ति केन्द्रों से संचालित है, वैसे ही मनुष्य का शरीर भी सात शक्ति केन्द्रों द्वारा संचालित होता है। ये केन्द्र "सप्त चक्र" के रूप में मेरुदण्ड में स्थित हैं। इन चक्रों का ब्रह्माण्ड के सात केन्द्रों से गहरा संबंध है, और यही कारण है कि कहा गया "यथा पिंडे, तथा ब्रह्माण्डे"।
सप्त चक्र:
1. मूलाधार चक्र
2. स्वाधिष्ठान चक्र
3. मणिपुर चक्र
4. अनाहत चक्र
5. विशुद्ध चक्र
6. आज्ञा चक्र
7. सहस्रार चक्र
ये चक्र सात व्याहृतियों द्वारा सम्बोधित किए जाते हैं। इन व्याहृतियों को उच्चारण करते समय, सबसे पहले "ॐ" का उच्चारण किया जाता है, क्योंकि "ॐ" ध्वनि ब्रह्माण्ड के साथ एकाकार होने का प्रतीक है। सात व्याहृतियां इस प्रकार हैं:
1. ॐ भूः
2. ॐ भुवः
3. ॐ स्वः
4. ॐ महः
5. ॐ जनः
6. ॐ तपः
7. ॐ सत्यम्
प्रकृति में अन्य प्राणियों के मेरुदण्ड पृथ्वी के समानान्तर होते हैं, जबकि मनुष्य का मेरुदण्ड पृथ्वी से लंबा होता है। इसका मतलब है कि मनुष्य का शरीर स्वाभाविक रूप से पृथ्वी से भिन्न कार्य कर सकता है, क्योंकि इन सात शक्ति केन्द्रों के परस्पर जुड़ने से मनुष्य को कर्म करने की अनंत शक्ति मिलती है। यही कारण है कि मनुष्य अपने असाधारण स्वभाव से कुछ भी करने की शक्ति प्राप्त कर सकता है।
जब इन सप्त चक्रों का परस्पर योग होता है, तो यह ब्रह्माण्ड के साथ एकाकार हो जाता है और अनंत शक्ति प्राप्त की जा सकती है। इसे कुण्डलिनी जागरण कहा जाता है, जो आत्म-साक्षात्कार और ब्रह्मज्ञान का मार्ग है।
इस प्रक्रिया से व्यक्ति अपने अन्दर छिपी हुई ऊर्जा और दिव्य चैतन्य का अनुभव कर सकता है, जो उसे आत्म-निर्भर और ब्रह्माण्डीय शक्तियों से जुड़ा हुआ महसूस कराता है।
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